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Writer's pictureMantraam Team

जप क्या है ।



समाहित चित्त (मन को किसी विषयमें संहृत करके), मन्त्र का अर्थ विचार करते हुए, अतन्द्रित (आलस्य रहित), तूष्णी (मौन) भाव से, माला के समान अनवच्छिन्न, न द्रुत न विलम्बित, उपांशु (अनुच्चस्वर से जब केवल होंठ हिलते हों परन्तु शब्द अन्य को सुनाइ न दे, ऐसे उच्चारण) अथवा मानस अक्षरावृत्ति (वार वार अभ्यास करने) को जप कहते हैं । जप की महिमा अपरम्पार है, जिसे महर्षिवाल्मिकी से लेकर गुरु नानकजी पर्यन्त तथा अन्य सन्तोंने प्रमाणित किया है । आजकल जप करनेवाले दिखाई नहीं देते । जो दिखते हैं, सारे ढोंगी हैं ।

गीताके विभूतियोग (10-25) में भगवानने कहा है कि यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि - यज्ञोंमे मैं जपयज्ञ हुँ । अर्थात् जप ऒर यज्ञका विभूति सम्बन्ध है । क्यों और कैसे ?

मनु महाराज भी कहते हैं –

विधियज्ञात् जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः ।

उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः ।

जिस यज्ञ श्रौतसूत्रमें वतायेहुए विधान का अनुकरण कर कियाजाता है, उसे विधियज्ञ कहते हैं (विधँ विधा॒ने) । विधियज्ञ से जपयज्ञ दशगुणा अधिक फलदायी है । उपांशु (उच्चस्वर में नहीं) सौ गुणा तथा मानस जप हजारगुणा अधिक फलदायी है । जपके तत्त्वको समझने केलिए योग और उसके अङ्ग, यज्ञ तथा विभूति क्या है, यह जानना पडेगा । प्रकरण के अनुरोधसे यहाँ यज्ञका अर्थ कल्पशास्त्रोक्त विधिपूर्वक देवपुजा तथा श्रौतसूत्रोक्त विधिपूर्वक विकल्प द्रव्यों का सङ्गतिकरण होगा ।

योग के बहुत सारे अर्थ है । परन्तु उनमें संयमन (युजँऽ सं॒यम॑ने), समाधि (यु॒जँ॒ समा॒धौ), तथा युक्त होना (यु॒जिँ॑र् योगे॑) सर्बसाधारण लक्षण है । सृष्टिमें ब्रह्म तथा उसकी पराशक्ति – यही मूलतत्त्व है । यह दोनों अविनाभावी हैं – एक अन्यसे पृथक् सत्तावाले नहीं है । ब्रह्मको रस (रसो वै सः - तैत्तिरीयोपनिषत् 2-7-2) तथा उसकी पराशक्तिको बल (प्राणो वै बलं यत्प्राणे प्रतिष्ठितं तस्मादाहुर्बलं सत्यादोजीयः - शतपथब्राह्मणम् – 14-8-15-7) कहाजाता है । यह दोनों एक ही तत्त्वका अन्तर्निहित धर्म है । बलोपेत (उपेत – समीपगत, उपनीत) रस धर्मी है । अविनाभावी होने से परमार्थ विचारमें मूलतत्त्वको एक मानकर रस-बलका अद्वेत सिद्धि होता है । दोनों सदा युक्त रहने से मूलतत्त्वको महायोगी कहते हैं । कार्यविचारसे रस-बल दोनोंको भिन्न मानकर द्वेतका सिद्धि होता है । मूलतः यह दोनों निर्धर्मक हैं । जहाँ धर्ममें अन्य धर्म न हो, उसे निर्धर्मक कहते हैं ।

मौलिक धर्म में सत्तासिद्ध (जिसके सत्ताका हमें ज्ञान है) धर्मका निरोध माना है । उनमें अनेक भातिसिद्ध (जिसका वास्तविक सत्ता नहीं रहने पर भी हम सत्तासिद्ध जैसे व्यवहार करते हैं – जैसे कि दिक्, काल, परिमाण, संख्या आदि जो वस्तु से भिन्न सत्ता नहीं रखते) धर्म भी उदित नहीं होता । इसलिये परात्पर और परअव्यय का जो घर्म वेद में कहागया है, वह भातिसिद्ध है । अक्षर और क्षर में वह सत्तासिद्ध और भातिसिद्ध दोनों है ।

बलविशिष्ट रस के साथ बलान्तर के सम्बन्ध से यदि दोनों का मूलस्वरूप रहते हुये एक तृतीय तत्त्व वनता है, तो उसे योग कहते हैं । मूलप्रकृति और पुरुष रसबल का समाहार है । बल के द्वारा ही विकृतियाँ जात होते हैं । इसी का अंश हम सब में है । स्थिर भाग रस है । चल भाग बल है । ध्येयविषयमात्र निर्भास स्वरूपशुन्य-जैसा ध्यान को समाधि कहते हैं । चित्तको किसी निर्दिष्ट प्रदेश अथवा विषयमें बद्ध करनेको ध्यान कहते हैं । ध्येय विषयमें हमारा मानसिक प्रत्यय चलता रहता है । जब अन्य प्रत्यय न रहकर केवल ध्येयविषयमात्र का प्रत्यय रह जाता है, तब उसे धारणा कहते हैं । ध्यानमें ध्येयस्वभावावेश से जब हम आत्मज्ञानशून्य अवस्थामें जाते हैं, उसे समाधि कहते हैं । किसी एक विषयमें ध्यान, धारणा और समाधिको एकत्र संयम कहते हैं । इसीलिए पतञ्जलि ने कहा है कि योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः – न कि सर्ववृत्तिनिरोधः । जब हम बल को संयमन कर उसे मूलप्रकृति के किसी विकार के साथ युक्त करते हैं, तो उसके फलस्वरूप हमें कुछ नुतन वस्तुका प्राप्ति होती है । उसे विज्ञानभाषामें योग कहते हैं । साधारण भाषामें जिसे योग कहा जाता है, वह दो प्रकारके होते हैं । क्रियाविशेषसाध्य हठयोग । भावनाविशेषसाध्य राजयोग ।

गीतामें योग के दो परिभाषा दियागया है । समत्वं योग उच्यते (गीता 2-48) तथा योगः कर्मसु कौशलम् (गीता 2-50) । आत्मसंयमन पूर्वक एकाग्रबुद्धि से अध्यवसाय एवं कृति का साम्य ही समत्वरूपी योग है । यही समत्व लाने के लिए जो अध्यवसाय किया जाता है, वही कौशल है ।

गीता (3-3) में भगवान ने लोकों में दो प्रकार के निष्ठा कहा है – ज्ञानयोगमें साङ्ख्यनिष्ठा तथा कर्मयोगमें योगनिष्ठा । आगे चलकर कहा है (गीता 5-4) वालक स्वभाव वाले (अल्पज्ञ) साङ्ख्य और योग को पृथक मानते हैं । ज्ञानीलोग दोनोंको एक मानते हैं ।

सम्यक् ख्यानं संख्या । सा यस्मिन् वर्त्तते तत् साङ्ख्य । विशिष्टरूप से किसी तत्त्व का (अन्य तत्त्वों से भेद प्रदर्शन पूर्वक) स्वरूप प्रकथन को संख्या कहते हैं (भेदाभेद विभागोहि लोके संख्या निबन्धन) । जो सर्वत्र अभेदरूप से प्रतीत होता है, वह एक है (एक इता संख्या । इता अनुगता सर्वत्र या संख्या सा एक । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां संख्याभ्युपगमेसति) । वह संख्या (स्वरूप प्रकथन) जिसमें है, वह साङ्ख्य है । इसलिए मूल प्रकृति तथा विकृतियों का स्वरूपदर्शन करनेवाले शास्त्र को साङ्ख्यदर्शन कहते हैं । आत्मसंयमन पूर्वक तत्त्व का सम् (अच्छी प्रकार, एक साथ) ओर अधि (सबसे उपर) चिन्तन रूप समाधि के बल पर आत्मज्ञान के साथ बुद्धि का युक्त हो जाना ही साङ्ख्ययोग है । यह बुद्धिपूर्वक मानस क्रिया है । कर्म बुद्धिपूर्वक शारीर क्रिया है । अतः क्रिया रूपसे साङ्ख्य और योग पृथक नहीं है । इन दोनों में से एक साधनमें भी अच्छीप्रकार से स्थित मनुष्य दोनों के फल प्राप्त कर लेता है (एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् - गीता 5-4) । इसीलिए कहा गया है कि –

ज्ञानं कुतो मनसि जीवति दुर्विकल्पे ।

प्राणोऽपि जीवति मनो म्रियते न यावत् ॥

प्राणो मनो द्वयमिदं न विलीयतेऽत्र ।

मोक्षं न गच्छति नरोऽत्र कथञ्चिदेव ॥ हठतत्त्वकौमुदी 2-3 ॥

दुषित मन में ज्ञान नहीं आ सकता । जब तक मन मृत्यु को प्राप्त नहीं हो जाता, प्राण अपना कर्म करता रहता है (मनोकृतेनायात्यस्मिञ्छरीरे – प्रश्नोपनिषत् 3-3) । जबतक मन और प्राण दोनों काम करना बन्द नहीं कर देते, तब तक मोक्ष मिल नहीं सकता ।

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥ मनुस्मृति 3-70 ॥

देवपुजाके अन्तर्गत कल्पशास्त्रोक्त नियमानुसार गृहस्थको ब्रह्म, पितृ, देव, भूत तथा मनुष्योंके पाञ्चप्रकारके ऋण परिशोध करने केलिए, प्रत्यह पञ्चयज्ञ करना चाहिए । हमारे दैनन्दिन कर्ममें जाने-अन्जाने में हिंसा हो जाता है । पञ्चयज्ञ करनेसे उसका प्रायश्चित हो जाता है । अध्ययन-अध्यापन कार्य ब्रह्मयज्ञ है । पितरोंका तर्पण पितृयज्ञ है । होमकार्य दैवयज्ञ है । गौ, श्वान, काक, देव, पिपिलीका केलिए बलिप्रदान (वध नहीं - बलकान्न भोजन केलिए दान) भूतयज्ञ है । गौबलि पत्ते पर, श्वानबलि पत्ते पर, काकबलि (कौए केलिए) पृथ्वी पर, देवबलि पत्ते पर तथा प‍िपलिका बलि (कीड़े-चींटी इत्यादि केलिए) जहां उनके बिल हों, वहां डाला जाता है । अतिथि-सत्कार नृयज्ञ हैं ।

श्रौतसूत्रोक्त विधिपूर्वक प्राकृतिक प्रक्रियाका अनुकरण करते हुए (यथा देवाः अकुर्वन् तथा करवाम) विकल्प द्रव्योंका सङ्गतिकरण कर ईप्सित वस्तुका प्राप्ति भी यज्ञ कहलाता है । जैसे रक्तका कमी होनेपर हम विकल्प से रक्तबर्धक खाद्य खाते हैं (रक्त नहीं पीते), हड्डी की कमजोरी में क्यालसियम युक्त पदार्थ खाते हैं, उसीप्रकार वैकल्पिक उपादान का सङ्गतिकरण से प्राकृतिक वस्तु का सृजन करना यज्ञ है ।

जहाँ दो तत्त्वोंके सम्बन्धसे एक अपने स्वरूपमें स्वतन्त्र रहे तथा अन्य परतन्त्र होजाये, उसे विभूतिसम्बन्ध कहते हैं । पुरुष-प्रकृति के नित्य विभूतिसम्बन्ध में प्रकृति परतन्त्र है । मन-प्राण-हस्त के सम्बन्धमें मन के इच्छा करने पर यत्नवान व्यक्ति का स्थिर हस्तअनेक प्रकार का क्रिया करता है । यह प्रज्ञानुचर प्राण का हाथ के साथ विभूति सम्बन्ध है । यज्ञ अधिभूत, अधिदैव तथा अध्यात्म में हो सकता है । विधियज्ञ विधिपूर्वक देवपुजा, सङ्गतिकरण तथा दान से सम्बन्ध रखता है (य॒जँ॑ देवपूजासङ्गतिकरणदा॒नेषु॑) । योग में दोनों का मूलस्वरूप रहते हुये एक तृतीय तत्त्व वनता है । श्रौतसूत्रोक्त विधियज्ञ सङ्गतिकरण रूपी योग है । इसमें सारूप्य तथा सायुज्य बनने से पारतन्त्र्य नहीं है । दान में अवखण्डन होने से देयवस्तु तथा ग्रहीता दातासे स्वतन्त्र होते हैं । यहाँ भी पारतन्त्र्य नहीं है । कल्पशास्त्रोक्त देवपूजा (उपासना) जपयज्ञ का अङ्गभूत हो सकता है तथा नहीं भी हो सकता है । जपमें अधिभूत से उपर उठकर अध्यात्म में ब्रह्म के अपने स्वरूपमें रहते हुए जीव परतन्त्रवत् आचरण करता है (सर्वत्र परतन्त्र होनेपर भी हम अपना अहंभाव से विच्छिन्न नहीं होते) । जप के समय हम अपना आत्म स्वरूपशुन्य हो कर देवस्वरूप को ही अपनालेते हैं और देव के परतन्त्र हो जाते हैं) । अतः जप में जाप्य (ब्रह्म) तथा जपी (जीव) का विभूति सम्बन्ध है । यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि सिद्ध होता है ।

रज-तम मलशून्य बुद्धिसत्त्वका परमवैशारद्य (स्वच्छता) होने के पश्चात् वशीकारसंज्ञा अवस्थामें सत्त्व तथा पुरुष का भिन्नताख्यातिमात्रप्रतिष्ठ योगी के चित्तमें सर्वभावाधिष्ठातृत्व होता है – अर्थात् व्यवसाय-व्यवसेयात्मक (ग्रहण-ग्राह्यात्मक) सर्बस्वरूप गुणसकल स्वामी क्षेत्रज्ञ के निकट अशेषदृश्यरूपमें प्रकट होते हैं । सर्वज्ञातृत्व का अर्थ शान्त-उदित-अव्यपदेश्य-धर्म के रूप में व्यवस्थित सर्बात्मक गुणों का अक्रम विवेकज ज्ञान । इसे विशोका नामक सिद्धि कहते हैं, जिससे सर्बज्ञता प्राप्त होता है । जप उस स्थितिमें ले जा सकता है ।

विषय जटिल है । समय निकालकर सरलभाषामें लेखुँगा ।


An Article by Sri Basudeba Mishra

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